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इस विभीषका दिवस पर कोई जालिम अमन परस्त आवाम का गरीबाँ-गीर न हो जाए ।

प्रधानमंत्री ने कहा कि देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता. नफरत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों और भाइयों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी

स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पहले यानी 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस के मनाने की माननीय प्रधानमंत्री जी की घोषणा ने एक बार फिर इस उपमहाद्वीप के प्रगति शील कवि फैज अहमद फैज की उस नज्म की याद दिला दी जिसमें उन्होंने लिखा है कि

‘आज की रात साज़-ए-दर्द न छेड़
दुख से भरपूर दिन तमाम हुए ..

अब न दौहरा फसाना-हाए-अलम(दुख की कहानी )
अपनी किस्मत पे सोगवार(उदास) न हो
फ्रिक्र-ए-फरदा (कल की चिंता)उतार दे दिल से
उम्र-ए-रफ्ता पे अश्कबार (रोना)न हो
अहद-ए-गम (दुख के दिनों)की हिकायते (कथाएँ)मत पूछ
हो चुकी सब शिकायतें मत पूछ
आज की रात साज-ए-दर्द न छेड़ ।’


आज तो मुल्क के हुक्मरान ही गम का जलसा मनाने का ही एलान कर रहे हैं। बंटवारे की त्रासदी जो भारतीय उपमहाद्वीप में 20वी सदी मे घटी, एक कलंक है जिसके जख्म कुरेद कर कोई भी हुकूमत उन्हे और गहरा तो कर सकती हैं लेकिन मल्हम नहीं लगा सकती हैं। यह त्रासदी किसी युद्ध के कारण नहीं हुई थी. बल्कि ब्रिटिश राज्य के मुल्क के बटवारे के निर्णय के कारण घटित हुई थी जिसकी जड़े साम्प्रदायिक सोच और सामंतवादी व्यवस्था में धंसी हुई है। मुल्क के दोनों और की आवाम ने इस विभीषिका को झेला है। सबकी अपनी अपनी कहानी हैं। सरहद के दोनों पार के रचनाधर्मीयों ने इन पहलुओं को बडी शिद्दत से उकेरा है फिर चाहें वो लेखक हो ,शायर हो,नगमाकार हो, चित्रकार हो,संगीतकार हों या फिर फिल्म कार हो। सब अपने अपने भोगे अनुभव से इन पहलुओं को कुरेदते है , उसमें जीवन के हर रंग , हर खुशबू , हर गम को ऐसा समेटता है कि आप इंसानियत के हर पहलू से जुड जाते हैं ।

आप रचना से गुजरते हुए, भावनाओं के जिस ज्वार मे फंसते हैं वह आपके अन्दर एक तुफान ला देता है और जब शान्त होता है तो आपकी सब कडवाहट दूर कर देता है ।लेकिन जब यही सियासत खुद तनकीह करती है. तो कडवाहट घटती नहीं है, बल्कि और सघन हो जाती है ।इन सियासतदानों को समझना चाहिए कि इस त्रासदी के दरम्यान किसी भी पक्ष द्वारा की गयी हिंसा को आज याद कर उचित नहीं ठहराया जा सकता है और न ही किसी दूसरे पक्ष को गुनाहगार मान लेने से आपकी हिंसा न्यायोचित हो सकती है।

गुनाह और अपराध दोनों ओर से हुए थे और इसके पीछे जिन साम्प्रदायिक ताकतों का खेल था उन्हे सब जानते हैं। बटवारे की पृष्ठ भूमि ही उस विचार धारा ने बनाई थी जो 1923 से ही यह रट लगा रही थी कि यह यह मुल्क एक धर्म विशेष का है और उसके राष्ट्र की अवधारणा भी धर्म के इर्द गिर्द घूमती है। धर्म से मुल्क बनाने की जिद करने वालो ने अपनी पूरी ताकत एक धार्मिक राष्ट्र के निर्माण में लगा दी थी, और इसके लिए वो अंग्रेजों से नहीं खुद के मुल्क के हजारों साल के इतिहास और रवायतों से लड़ रही थी।

उनकी इस धार्मिक पागलपन का असर आस पास के उन लोगों पर भी पड़ने लगा जो जाति गत भेदभाव से तंग आकर 700 ईस्वी से ही एक अन्य धर्म आकर्षित हो रहे थे ।वे संख्या में कम थे, और बहुसंख्यक समुदाय मे फैलती साम्प्रदायिक भावना उनमे शंका पैदा करती थी| कि आजाद लोकतांत्रिक देश में उनकी हैसियत क्या होगी। इसका नतीजा ही यह हुआ कि वे गोलबंद होने लगे और धर्म को ही राष्ट्र मानने की उभय पक्षों जिद्द ने मुल्क का बटवारा करवा दिया। हमारे देश ने गांधी और नेहरू के नेतृत्व में, इस त्रासदी के दरम्यान ही यह संविधान के दस्तावेज में दर्ज कर दिया कि यह राष्ट्र कभी भी एक धार्मिक राष्ट्र नही होगा ।


अब प्रश्न यह है कि 75 साल बाद क्या यह दिवस उन सियासतदानों को सुबुद्धि देगा कि वह इसका प्रायश्चित अपनी साम्प्रदायिक राजनीति त्याग कर करेंगे या यह दिवस उनको अपनी विचारधारा को बढा चढा कर पेश करेने का एक मौका देगा? विभाजन की त्रासदी अकेला यह मुल्क ही नहीं झेला है।20वी सदी मे एशिया महाद्वीप में यह दूसरी वार जमीन पर कृत्रिम सीमाएं खींची गई थी जिसकी परिणति भारत और पाकिस्तान दो मुल्क बने। प्रथम विश्व युद्ध के बाद एशिया के मध्य पूर्व को यूरोपीय ताकतों ने जिस तरह बांटा था उसके जख्म आज भी ताजा है और ज्यादातर देश अपने पडोसी मुल्कों से किसी न किसी दुखद घटना को मुद्दा बना कर लड़ रहे है ।इसकी परिणति यह हुई कि यह प्राचीन वैभव शाली संस्कृति और सभ्यता युद्ध में तबाह हो रही है ।


भविष्य में युद्ध और हिंसा से बचने के लिए जरूरी है कि आप वर्तमान में रहे और अपने अतीत को इस हद तक न कुरेदे कि उनसे खून का रिसाव होने लगे।हम सब जानते हैं कि पिछले खून का हिसाब जब आप रखने लगेगे और उसे किसी न किसी बहाने याद करने लगेंगे तो यह खूनी जंग और परवान चढेगी न कि समाप्त होगी । यूरोप के मुल्कों के लिए प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध एक बहुत बड़ी त्रासदी है लेकिन मेरी जानकारी में नहीं है कि वे इसे किसी दिवस के रूप में याद करते हो। यूरोप के मुल्कों ने इस त्रासदी पर बहुत कुछ लिखा है,और फिल्माया है लेकिन किसी विभीषका दिवस मनाने की घोषणा नहीं की गयी है ।


बटवारे पर दोनों मुल्कों के इतिहासकारों, लेखकों, शायरों ने बड़ी संजीदगी से लिखा है और वही इसके सबसे बड़े हकदार है। इस पैचदगी मे सियासत को नहीं पड़ना चाहिए ,अगर इतिहास को कुरेदोगे तो कालिख आपकी भी बाहर आएगी ।बटवारे की कहानी याद कर हुक्मरान क्या सीखेगें यह तो नहीं मालूम लेकिन सरहद के दोनों ओर ‘खुने-दिल में उँगलियाँ डूबो कर नगमानिगार उस वतन को याद करते रहेंगे जिसे मुल्क की सरहद की तरह नशतर नहीं किया जा सकता है जो उनके दिल मे बसता है। फैज इसी वतन को याद करते हुए लिखते हैं कि:


‘ओ मेरे वतन,ओ मेरे वतन,ओ मेरे वतन!
मेरे सर पर वो टोपी न रही
जो तेरे देस से लाया था
पाँवो में वो जूते भी नहीं
बाकिफ थे जो तेरी राहों से
मेरा आखिरी कुर्ता भी चाक हुआ
तेरे शहर में जो सिलवाया था

अब तेरी झलक
बस उड़ती हुई रंगत है मेरे बालों की
या झुर्रियों मेरे माथे पर
या मेरा टूटा हुआ दिल है
वा मेरे वतन, वा मेरे वतन, वा मेरे वतन ।’


अब यही दुआ कर सकते हैं कि आगे इस विभीषका दिवस पर कोई जालिम अमन परस्त आवाम का गरीबाँ-गीर न हो जाए ।

Ajay Gangwar

लेखक मध्य्प्रदेश सरकार के पूर्व आईएएस अधिकारी है अजय गंगवार मध्यप्रदेश सरकार के प्रमुख प्रशासनिक पदों पर अपनी सेवाएं दे चुके है.

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