सांप्रदायिक दल अपनी घ्रणा लिखने की हिम्मत दीवालो पर कैसे करेंगे ?
केंचुआ को जब भी कटघरे मे खड़ा किया जाता है तो लोग शेषन(Tirunellai Narayana Iyer Seshan) की कार्यशैली को याद करने लगते हैं. वेशक शेषन एक कठोर शासक थे और उनके समय केंचुआ मे रीढ की हड्डी दिखी थी
लेकिन अपने 32 साल के सेवा काल मे 10 से अधिक लोकसभा /विधानसभा चुनाव निर्वाचन अधिकारी से लेकर प्रयवेक्षक की हैसियत से काम करने के अनुभव के बाद मे यह कह सकता हूँ, कि उनके समय में चुनाव आयोग ने सभी राजनैतिक दलों को दीवार लेखन से रोक दिया था और इसी का नतीजा यह निकला की राजनैतिक प्रचार के सबसे सस्ता और सुलभ तरीके पर रोक लगजाने के कारण आम आदमी की राजनीति करने वाले सर्वहारा के राजनेतिक दल जो मुख्यत:वामपंथी और समाजवादी दल थे जो पुंजीवादी और सांप्रदायिक और धर्म आधारित राजनीती के घोर विरोधी थे, जिनके पास पुंजी प्रवाह नही था राजनेतिक द्रश्य पटल से धीरे धीरे गायब हो गए और भारतीय राजनीति भी मुद्दे विहीन हो गई.
शेषन के इस तुगलकी आदेश के कारण आज भी चुनाव घोषित होते ही हर ज़िले शहर कस्बे मे दीवालो पर लिखे नारो को मिटाने के लिए टीम बनाई जाती है जो ज़िला निर्वाचन अधिकारी के निर्देश पर दिवालो पर से राजनेतिक नारो और शासकीय सम्पति पर लगे झंडे हटाती रहती है
चुनाव आयोग के पर्यवेषक भी इसी पर सबसे ज्यादा नज़र रखते हैं जैसे की किसी दिवाल पर नारा लिख गया य़ा किसी बिजली के खंबे पर राजनेतिक दल का झंडा लग गया हो, तो इलेक्शन ही दूषित हो जायेगा .निर्वाचन अधिकारी अपनी सफलता इसी मे समझते हैं कि उनके इलाके मे कोई दिवाल लेखन नहीं हो और किसी भी खंबे पर दलो के झंडे नही हैं
इस मूर्खतापूर्ण आदेश के कारण चुनाव प्रचार महंगा होता गया और आर्थिक रुप से कमज़ोर दल राजनैतिक परिद्रश्य से बाहर हो गए . इस आदेश ने एक तरफ चुनावो को बैरंग कर दिया और दूसरे और दलो को मजबूर कर दिया। की वो अत्याधिक पुंजी लगाकर अपना प्रचार टीवी ओर अखवारों मे एड दे कर करे.
इसका परिणाम यह हुआ कि चुनावो मे जन सरोकार के मुद्दे खत्म हो गए और उसकी जगह व्यवसायिक प्रचार तंत्र आ गया जो भारी पैसा लेकर झूठे मुद्दे गढते हैं, और जनता के विचार और भावनाओं को दूषित कर एक पक्ष की ओर ले जाने की 24*7 घंटे कोशिश करते हैं
दिवाल लेखन सबसे सस्ता ओर सुलभ प्रचार साधन था. राजनेतिक दल अपने लोकल कार्यकरताओं की मदद से ही लेखन करते थे जिसके कारण स्थानीय कार्यकर्ता राजनेतिक प्रक्रिया मे सीधे शामिल हो जाता था .
शेषन ने अपनी इस मूरखता से राजनीति को ज़ितना नुक़सान पहुचाया है उतना किसी और ने नही किया .दिवालो पर लिखे मुद्दे और नारे चुनावों के बाद भी महीनो ओर सालों लिखे दिख ज़ाते थे जो मतदाताओं ओर जनता के जेहन को उद्वेलित करते रहते थे और इस तरह से उसे राजनेतिक रुप से जागरुक समरर्ध्य करते थे .
अब आवश्यकता है कि इस आदेश को निरस्त किया जाए और दलो को दिवाल लेखन की छूट दी जाए .चुनाव के बाद भी सरकार इनको दीवालो से मिटा सकती है जिस पर ज्यादा खर्च नही आयेगा
यदि हम लोकतंत्र को जनोमुखी देखना चाहते हैं ओर पुंजी केन्द्रित ओर सांप्रदायिक राजनीती से बाहर निकलना चाहते हैं तो ऐसा करना होगा.सांप्रदयिक दल अपनी घ्रणा लिखने की हिम्मत दीवालो पर लिखने की जुर्रत नही कर सकेंगे ,यदि करेंगे तो जनता के सामने नंगे हो जाएंगे।