ब्लॉग
Trending

गहन है यह अन्धकार -प्रेमकुमार मणि

चारों ओर से भयावह खबरें आ रही हैं . एक मित्र के खोने की खबर ख़त्म नहीं हुई कि वैसी ही दूसरी खबर आ जा रही है . ऑक्सीजन लेबल की तरह मित्र सूची का ग्राफ भी खुद -ब-खुद गिर रहा है . जाने कैसे भुतहे दौर से गुजर रहे हैं हम सब .

महामारियाँ पहले भी आती थीं . हमने उसके बारे में बुजुर्गों से सुना और कुछ को देखा -झेला . प्लेग और इन्फ्लुएंजा के बारे में सुना . कॉलरा , चेचक आदि को देखा . मलेरिया ,टायफायड ,ट्यूबरक्लोसिस आदि भिन्न किस्म की बीमारियां थीं . लेकिन उन सबके आतंक भी देखे .

फोटोः रायटर्स

जब हम बच्चे थे ,तब मुल्क में नेहरू जी का राज था . देश को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ाद हुए दशक भर हुए थे . देश की आर्थिक स्थिति कमजोर थी . रोटी का इंतजाम करना जीवन का मकसद हुआ करता था . लेकिन तब भी तत्कालीन हुक्मरानों ने स्वास्थ्य की चिंता की थी . गाँवों में तब कुँए होते थे . बरसात के पूर्व सरकारी आदमी झोले में ब्लीचिंग पाउडर लिए गांव -गांव घूमते थे . समझा -बुझा कर वे कुँओं में दवा डालते थे . चेचक के टीके स्वास्थ्य विभाग के चलंत कर्मचारी गांव -गांव ,स्कूल -स्कूल घूम कर देते थे . मलेरिया उन्मूलन के लिए गांव -गांव स्वास्थ्य -कर्मचारी घूमते थे और लोगों के ब्लड -सैंपल के स्लाइड तैयार करते थे . उन सबकी जांच जिला स्तर के लैब में की जाती थी . यह सब तब हो रहा था जब हम विपन्न थे . यह वर्ष प्रख्यात लेखक फणीश्वरनाथ रेणु का जन्मशती वर्ष है . उनके उपन्यास मैला आँचल का आरम्भ ही होता है कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के कर्मचारी अस्पताल निर्माण केलिए जमीन की पैमाइश करने मेरीगंज आए हैं . इस खबर और हलचल से ही उपन्यास का आरम्भ होता है .

लेकिन आज की स्थिति ! प्रधानमंत्री तो अपने सीने की चौड़ाई और ट्रिलियन खजाने की अकड़ दिखाने में लगे हैं . उनके संगी -साथी ( अम्बानी -अडानी ) खरबों से निर्मित महामहलों में जम्हाइयां ले रहे हैं और मुल्क की आमजनता अपनी साँसों की मोहताज हो गयी है . आज के तकनीकी जमाने में ऑक्सीजन के अभाव में लोगों की जान यदि जा रही है ,तो इसे सरकारी हिंसा ही कहा जाना चाहिए . पिछले साल के आरम्भ में ही कोरोना ने दस्तक दे दी थी . तब से हमें लगभग डेढ़ साल का वक़्त मिला . इतने समय में तो हम स्वास्थ्य सेवाओं का कायाकल्प कर सकते थे . हमने कुछ नहीं किया . जिस नेहरू को रोज गाली दी जा रही है ,उसने तो कई महामारियों को योजना बना कर ख़त्म किया , प्रयोगशालाएं बनवाई . एम्स जैसा मानक अस्पताल बनवाया . हमारे मौजूदा हुकरान ने इस बीच रामजी के महामंदिर की आधारशिला रखी . इन सब से शासक तबके के दृष्टिकोण और उनकी दिलचस्पी का पता चलता है . पिछली सदी में जर्मन तानाशाह हिटलर ने लाखों लोगों को गैस चैम्बर में डलवाकर मार दिया था . हमारे हुक्मरान गैस का अभाव पैदा कर लोगों को मार रहे हैं . गणित में धन और ऋण ( + और – ) का अंतर्संबंध होता है .


सरकारें आखिर होती किसलिए हैं ? महामारी से लड़ने की उसकी क्या योजना थी ? एक सड़क का निर्माण रोक कर यदि उसकी राशि स्वास्थ्य सेवा विस्तार में लगाईं गई होती तो कई जिलों की स्वास्थ्य सेवा अपने नागरिकों का संरक्षण देने में सक्षम हो जाती . अत्यंत ख़राब स्वास्थ्य सेवा के लिए सरकारें जिम्मेदार हैं और कोई नहीं . अस्पताल निर्माण और स्वास्थ्य सेवा विस्तार में उतने कमीशन की गुंजायश नहीं होती ,जितनी सड़क ,पुल और अजायबघरों के निर्माण में होती है . इनके कमीशन उन्हें विदेशी बैंकों में जमा करा दिए जाते हैं .असल माजरा यह है .
मेरे पास डाक्टरों के पूरे आंकड़े नहीं हैं . लेकिन आज भी डाक्टर कम हैं . कई स्तरों के डाक्टर होने चाहिए . मेडिकल कॉलेजों को पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में होना चाहिए . पढ़ाई की निःशुल्क व्यवस्था हो ताकि सभी मेधावी छात्र वहाँ चिंतामुक्त पढाई कर सकें . मेधावी छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए बार -बार उत्साहित किया जाना चाहिए . सहायक स्वास्थ्य कर्मी , जैसे नर्स और तकनीशियन भी बड़े पैमाने पर तैयार किए जाने चाहिए . इनके रोजगार की गारंटी हो और आर्थिक रूप से इनका शोषण नहीं हो . इस महामारी के दौर में मैंने देखा कि नौ हजार मासिक की तनख्वाह पर स्वास्थ्य कर्मचारी काम कर रहे हैं . उनसे हम किस तरह की बेहतरी की उम्मीद कर सकते हैं . डाक्टरों की हालत भी कम बुरी नहीं है . उनकी कमी से उनपर काम का बोझ अधिक है और वे असहज हो रहे हैं .

लेकिन हमलोग इन चीजों पर कब ध्यान देंगे ? जयश्रीराम और अल्ला हो अकबर की मानसिकता में हमने जिस राजनीति का सृजन किया है ,उससे और क्या हो सकता था . समय है कि हम अपनी किस्मत पर विचार करें कि आखिर किस दौर में पहुँच गए हैं . अब भी वक़्त है कि हम शिक्षा ,स्वास्थ्य और रोजगार की अहमियत को समझेँ और इन सवालों को केंद्र में रख कर ही किसी राजनीति पर विचार हो . मैं बार -बार कहता रहा हूँ कि विकास की राजनीति अमानवीय और खतरनाक है . इसे पूंजीवादी मानसिकता ने बल दिया है . इस विकास के नाम पर हमने लाखों पेड़ कटवा दिए और कंक्रीट के रास्तों का गांव -गांव में जाल बिछा दिया . हमने उस प्रकृति को क्षत -विक्षत किया ,जिसकी गोद में हमें जीना था . हम उसी डाल को काटते रहे ,जिस पर हम बैठे थे . आज हम अनेक रूपों में उसका दंश झेल रहे हैं . महामारी भी उनमे एक है .

महामारी के इस दौर में अपने मुल्क की सड़ी-गली व्यवस्था और लगभग वैसी ही राजनीति पर विचार करने केलिए हमें वक़्त निकालना चाहिए . हम पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीवादी राजनीति के मकड़जाल में हैं . इसे तोड़े बिना मुक्ति संभव नहीं है . हमें इस पर विचार तो करना ही होगा कि हमारी किस कमजोरी के कारण अम्बानी -अडानी भारतभाग्य विधाता बन गए हैं . हमारा देश एक समय ईस्ट इंडिया कम्पनी चला रही थी . वह एक ब्रिटिश कम्पनी थी . उस दौर को कम्पनी राज कहा जाता था . क्या आज हम एकबार फिर कम्पनी राज में ही नहीं पहुँच गए हैं ? अंतर इतना ही है कि वह विदेशी कम्पनी थी और यह स्वदेशी है . लेकिन दोनों का चरित्र एक ही है . लाभ केंद्रित राजनीति .

पूंजीवादी व्यवस्था मानवीयता को नहीं लाभ को देखती है . लाभ के लिए अस्पताल ,लाभ केलिए स्कूल ,लाभ के लिए राजनीति ,लाभ के लिए धर्म . लाभ केलिए कला ,लाभ केलिए साहित्य . यही नहीं लाभ केलिए मित्रता . लाभ केलिए विवाह . सब कुछ लाभ केलिए .

जो लाभ के प्रतिकूल है ,उसे यह व्यवस्था ख़ारिज कर देती है . आप समझ सकते हैं कितनी घिनौनी है यह व्यवस्था ,जिसमें आज हम जी रहे हैं .

मेरा फिर आग्रह होगा कि लाभ केंद्रित राजनीति को कल्याण केंद्रित राजनीति में तब्दील करने की हमें कोशिश करनी चाहिए . इसके लिए एक बार फिर हमें समाजवादी आदर्शों से जुड़ना होगा . इसलिए यह मुश्किल घड़ी कुछ नए संकल्प लेने का होना चाहिए . छाती पीटकर और कुढ़ कर हम आखिर क्या पा सकते हैं !

Ajay Gangwar

लेखक मध्य्प्रदेश सरकार के पूर्व आईएएस अधिकारी है अजय गंगवार मध्यप्रदेश सरकार के प्रमुख प्रशासनिक पदों पर अपनी सेवाएं दे चुके है.

Related Articles

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker