हमारे लोकतंत्र की गाड़ी पटरी से उतर रही है
नेता यदि चुनाव सभा में सड़क , बिजली , पानी , रोजगार के बजाय अपने गोत्र की बात करे ; धार्मिक श्लोक सुनाए , तो हमें समझना चाहिए हमारे लोकतंत्र की गाड़ी पटरी से उतर रही है !
नेताओं को इस बात के लिए दोष देना उनके साथ नाइंसाफी होगी । वह तो किसी मासूम दुकानदार की तरह वही सामान बेच रहे हैं जो ग्राहक के मन को भाता है । सवाल तो वोटर से होना चाहिए कि चौहत्तर साल के अनुभव के बाद भी अब तक उन्हें चुनाव का हुनर और वोट देने की तमीज क्यों नहीं आई ? क्या इन वोटरों को सचमुच वोट देने लायक माना जाए ? वयस्क मताधिकार को नियम बनाने वाले शायद भूल गए कि पैदा होने के 18 साल बाद कोई अपने आप वयस्क नहीं हो जाता । कुछ लोग 40 या 50 साल बाद वयस्क होते हैं , और कुछ तो सारी जिंदगी अबोध बने रहते हैं !
पिछले दिनों जब ब्रिटेन में यूरोपियन यूनियन से अलग होने या ना होने पर मतदान हो रहा था ,तो ब्रिटिश विचारक रिचर्ड डॉकिंस ने कहा -” इस चुनाव में वोट देने के लिए मैं लायक नहीं हूं ,इस चुनाव में वही वोट दें जो या तो अर्थशास्त्री हो या राजनीति विज्ञान में पीएचडी !…” यह एक जटिल मामला था जिसमें राय देने के लिए ज़रूरी जानकारियाँ न होने पर आप दिल की सुनेंगे जो एक गलत फैसला होगा, और ऐसा हुआ भी !
इजराइली विद्वान युवाल नोहा हरारी उनकी बात से सहमत होते हुए कहते हैं ,लोग वोट डालते वक्त जानकारी के आधार पर नहीं अपने महसूसात की बिना पर वोट डालते हैं । ज्यादातर लोगों के पास चुनाव के फैसले को करने के लायक न तो जरूरी जानकारियां होती हैं ना ही समझ ।
हम अपने आप से सवाल कर सकते हैं कि पिछली बार वोट डालने से पहले क्या हमने सभी पार्टियों के घोषणापत्र पढ़े थे ? क्या हमें जानकारी थी कि हमारे इलाके की समस्याएं क्या हैं , और हमें अपने होने वाले विधायक , सांसद या पार्षद से क्या अपेक्षाएं होनी चाहिए ? हम पार्षद के उम्मीदवार से पेट्रोल के बढ़ते दाम की शिकायत करते हैं और सांसद का वोट मांगने आए उम्मीदवार से बैक लेन में सफाई न होने का रोना रोते हैं !
पढ़े लिखे लोगों ने राजनीति को गंदी बात कहकर अपने घरों की देहरी नहीं लांघने दी , मगर जैसा कहते हैं यदि आप राजनीति नहीं करते तो कोई और आपके बदले में आप के फैसले लेता है और आपको उसे मानना होता है । ‘कोउ नृप होए हमें का हानि ‘ , कहने वाला समाज नहीं समझ पाता कि उसके बच्चों की शिक्षा , रोजगार , स्वास्थ्य सब इसी बात से तय होता है कि राजा कौन है !
पिछले चुनाव में मैंने कुछ लोगों से उनके वोट देने की वजह पूछी थी । मुझे हैरान करने वाले जवाब मिले । एक ने कहा – हमारे दादा जी कह गए थे हम फलां पार्टी के हैं ,इसलिए चाहे वह काम करें या ना करें हम उसी को वोट देंगे ! एक लड़की ने कहा मुझे उस नेता की आवाज रेडियो पर अच्छी लगती है इसलिए …! एक नेता को हर बार सिर्फ इसलिए चुना जाता था कि वह लोगों की अंतिम यात्रा में पैदल चलता था ! जाति धर्म पंचायत बिरादरी तो खैर बहुत से लोगों के वोट देने की वजह है ही ,इसके अलावा शराब ,नगद पैसा, हवा देखकर जीतने वालों को वोट देना जैसी तमाम वजहों से भी चुनाव जीते जाते हैं !
क्या इन वोटरों को हम वयस्क कहें ? क्या इन लोगों को वोटिंग का अधिकार होना चाहिए ?
वोटिंग के अधिकार को ‘समझ’ से जोड़ना एक खतरनाक विचार है , और लोकतंत्र की बुनियादी भावना के खिलाफ लगता है , इसलिए बजाय नासमझ से वोटिंग का अधिकार छीनने के , वोटर को समझदार बनाना ही इस समस्या का समाधान है !
फिलहाल हम सिर्फ आशा कर सकते हैं एक दिन ये वोटर बड़े हो जाएंगे , वयस्क हो जाएंगे। ये
आर्टिकल संजय वर्मा जी की फेसबुक से लिया गया है।