बुंदले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी
“बुंदले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी” 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का यह गीत गाने वाली ‘हरबोला'(वसदेवा) जाति आज विलुप्तप्राय हो चुकी है। यह जाति ज्यादातर बुंदेलखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार में पाई जाती थी। हमारे बचपन में यह हमारे गांव में भी घूमा करते थे। हमारे क्षेत्र में उनको ‘चमर मंगता’ कहा जाता था। ये भीख मांग कर जीवन यापन करते थे। गृह मालिक या मालकिन को खुश करने के लिए उनका यशोगान करते थे। “भइया बना रहा अलबेला, तोहरे झउवन होइ गदेला, हर गंगा..।” हालांकि ‘झउवन होइ गदेला’ आज अभिशाप का रूप धर चुका है। ‘हर गंगा’ उनके गाने का टेक होता था। उसी तर्ज पर एक गीत-
मजहब के तनि गई कटार, मंदिर मस्जिद के तकरार
जनता करती हाहाकार, बीम बजावै चौकीदार। हर गंगा..
झूठ बोलि के बनै महान, बेचैं धरती अउर असमान
बेचैं खेत बाग खलिहान,भूखा नंगा मरै किसान। हर गंगा..
पास भवा करिया कानून, होइ जइहैं किसान दुख दून
खाइ के मिली न रोटी नून, हवा बुकावा तीनौ जून।हर गंगा
रावन कंस दुशासन राज, लूटै रोज घूंघट के लाज
मंत्री भवा घोटालेबाज,बंधिग चोर के सिर पे ताज।हर गंगा
सांच कहे तो मारन धावै, झूठ लबार को जग पतिआवै
मेहनतकश भूखै सो जावै,खूब हरामी मौज उड़ावै।हरगंगा
अजब गजब कुर्सी के खेल, चोर सिपाही में भ मेल
बालू से निकलत बा तेल,बबुल डार मे फरिग बेल।हर गंगा
लरिकन घूमैं बेरोजगार, गूंगी बहरी भइ सरकार
कुरसी खातिर सब लचार, देशवा के भ बंटाधार। हर गंगा.
अइसी मंहगाई के मार, पेटरोलवा भ सौ के पार
कतहूँ न रोजी रोजिगार,कइसे होइ जिनगिया पार।हर गंगा
पंडित मुल्ला की सरदारी, मजहब के तनि गई कटारी
बिलखै मानवता बेचारी,कुर्सी खातिर मारा-मारी।हर गंगा.
क्रेडिट – इस स्टोरी को मोहन लाल यादव ने अपनी फेसबुक पे पोस्ट की है
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