ज़रा हटकेस्वतंत्रता सेनानी

शहीद भगतसिंह क्रान्ति का साक्ष्य’ पुस्तक से योगेशचन्द्र चटर्जी का संस्मरण

 

 स्वतंत्रता सेनानी योगेशचंद्र चटर्जी ने शहीद भगतसिंह क्रान्ति का साक्ष्य नामक पुस्तक में संस्मरण लिखा है। अापके समक्ष प्रस्तुत है अमर शहीद भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन की स्मृतियों को व्यक्त करता संस्मरणात्मक आलेख का अंश

सन् 1923 में उत्तर प्रदेश के दौरे के समय मैं जब कानपुर में रहता था, स्वतंत्रता सेनानियों तथा क्रांतिकारी दल के लोगों से संपर्क स्थापित करने में ही मेरा अधिकांश समय बीतता था। मुझे अनुशीलन समिति ने वहां भेजा था। एंग्लो बंगाली स्कूल के अध्यापक सुरेश भट्टाचार्य के पटकापुर मेस में मैं ठहरा हुआ था। कुछ दिनों के बाद उस मेस में एक ऐसे नवयुवक का आगमन हुआ, जो बाद में बहुत ही प्रख्यात हो गया।

इतिहासज्ञ जयचन्द्र विद्यालंकार लाहौर के कौमी महाविद्यालय में प्रोफेसर थे। वह हमारे पंजाब की गुप्त पार्टी के प्रमुख भी थे। विद्यार्थी जीवन में भगतसिंह जयचन्द्र जी के बहुत निकट संपर्क में आए। जयचन्द्र जी ने भगत सिंह को अपने दल में भर्ती करने में देर नहीं की। इससे कुछ उलझन पैदा हो गई, क्योंकि भगतसिंह के परिवार वाले विशेषत: उनके पितामह उनकी शादी करने पर तुले हुए थे। भगतसिंह इसके बिल्कुल विरुद्ध में थे। उन दिनों लाहौर में शचीन्द्रनाथ सान्याल का आना हुआ। जयचन्द्र जी ने उनसे इस उत्साही युवक विद्यार्थी की चर्चा चलाई। इस पर श्री सान्याल ने भगतसिंह से मिलने की इच्छा प्रकट की। मिलने पर सान्याल बाबू ने भगतसिंह से दो प्रश्न किए- क्या तुम अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर सकते हो? और क्या इस ध्येय की पूर्ति के लिए अपने परिवार तथा संबंधियों को छोड़ने के लिए तैयार हो? भगतसिंह ने दोनों प्रश्नों के उत्तर हां में दिए और उसी समय उनके जीवन का रुख बदल गया। सान्याल बाबू ने मेरे नाम एक पत्र देकर भगतसिंह को कानपुर भेज दिया।

दिन के प्रहर भगतसिंह पटकापुर मेस में मेरे पास पहुंचे। कानपुर में उनके नए जीवन का यह आरंभ ही था। वैसे उनकी भरपूर दाढ़ी थी, किंतु वह निरे सत्रह वर्ष के नौजवान थे। वह एक प्रतिभाशाली तथा जिज्ञासु युवक थे और देश की बातों में उनकी रुचि थी। हम घंटों देश के सामान्य राजनीतिक जीवन पर बातें किया करते थे। देश की परिस्थिति में किस प्रकार की क्रांति सबसे अधिक अनुकूल पड़ेगी और अन्य देशों में विशेषत: रूस में क्रांति के विभिन्न पहलू क्या हैं। भगतसिंह जानना चाहते थे कि साम्यवादियों का ध्येय क्या है। उनकी जिज्ञासा अदम्य थी। उनका युवा मस्तिष्क किसी नए विचार को समझने या उनका मूल्यांकन करने के लिए सदैव सतर्क रहता था।

पटकापुर मेस में भगतसिंह के आते ही हम लोग सावधान हो गए थे, क्योंकि बंगाली मेस में एक सिख युवक का रहना पुलिस के लिए शक का विषय बन सकता था। हमारी आय का कोई साधन नहीं था। इसलिए हमारी आर्थिक स्थिति बहुत तंग थी। भगतसिंह के आ जाने से स्थिति और भी विकट हो गई। इसी समय किसी काम से जयचन्द्र जी का कानपुर आना हुआ। वह विद्यार्थी जी से मिले और उन्हें हमारी समस्या बताई। विद्यार्थी जी ने बड़ी प्रसन्नता से कहा कि वह भगतसिंह को अपने प्रताप के कार्यालय में रख लेंगे, जहां वह पत्रकारिता सीख सकेंगे। भगतसिंह प्रताप कार्यालय में रहकर पत्रकारिता सीखने लगे। विद्यार्थी जी छात्रवृत्ति के तौर पर दस रुपये मासिक दिया करते थे। इस प्रकार भगतसिंह के रहने की तथा खर्चे की समस्या सुलझ गई। हम सबको बड़ी राहत मिली। बाद में भगतसिंह अलीगढ़ चले गए। मैंने ही उन्हें वहां के नेशनल स्कूल का हेडमास्टर बनाकर भेजा था। जाते समय मैंने उनसे कहा था, अपनी प्रतिभा और सबल चरित्र के कारण हमारे सभी परिचितों में तुम्हारी बड़ी इज्जत है। कहीं भी जाओ, अपना सिर ऊंचा रखो।

उसके बाद मैंने उन्हें केवल एक ही बार और देखा। काकोरी षड्यंत्र केस में हमारे मुकदमे की सुनवाई के समय भगतसिंह अदालत में आए थे। वह मुकदमा लखनऊ में एक विशेष न्यायाधीश की अदालत में 4 जनवरी 1926 को शुरू हुआ था। हम लोग काकोरी केस के आसामी थे। एक दिन सुबह जब कैसरबाग की रोशनउद्दौला अदालत की ओर जाती हुई हमारी बसें हेवट रोड से कंटोनमेंट रोड को मुड़ीं तो मैंने एक नुक्कड़ पर भगतसिंह को खड़े देखा। हम लोग जब अदालत के भीतर कटघरे में बैठ गए, तब देखा कि अन्य दर्शकों के साथ भगतसिंह भी अदालत में आए। उस समय उन्होंने जोधपुरी पतलून और जरीदार पगड़ी पहन रखी थी। वह सारे दिन मौन बैठे रहे। अदालत में बहुत से पुलिस अधिकारी और सीआईडी अफसर थे, किंतु उस रूपवान और चुस्त-दुरुस्त सिख युवक को कोई ताड़ न सका। हमारी बसें जब हमें अदालत से लेकर चलीं, तब मैंने देखा कि भगतसिंह अदालत के सामने वाले उद्यान में खड़े हैं। उन्हें देखने का मेरा वह अंतिम अवसर था। काकोरी केस के बाद मुझे आगरा सेंट्रल जेल भेज दिया गया। वहां मुझे अपने मित्र विजय कुमार सिंह के पत्र मिला करते थे, जिनमें वह प्राय: बलवंत सिंह के विषय में लिखा करते थे। कानपुर में यह नाम मैंने ही भगतसिंह को दिया था।

सन् 1928 के अंत में मैं आगरा जेल से लखनऊ जेल भेजा जाने वाला था। इसकी सूचना मैंने अपने बाहर के मित्रों को दे दी। उन्होंने मुझे छुड़ाने की योजना बनाई। कानपुर से पश्चिम पांच मील की दूरी पर, जहां ट्रेन को कुछ मिनट तक रुकना था, कार्रवाई की जगह निश्चित की गई। छुड़ाने की इस योजना में भाग लेने वाले थे भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु तथा अन्य चार साथी। दुर्भाग्य से यह योजना विफल हो गई। बाद में पता चला कि भगतसिंह इस पर बहुत रोए थे। इसके बाद भगतसिंह से मेरा किसी प्रकार का संपर्क नहीं हो सका। जेल में एक दिन सुना कि 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में भगतसिंह को फांसी दे दी गई।

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