निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ संजय निषाद अपने समाज के लिए कितने उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं
न्यूज़ 24 चैनल पर एक प्रोग्राम आता है कि ‘माहौल क्या है’।इसमें ज्ञान रंजन उत्तर प्रदेश के भदोही में पूछ रहे थे कि इस क्षेत्र के निषाद आने वाले यूपी विधानसभा चुनाव में किस को वोट देंगे और इसका आधार क्या होगा ? निषाद जाति पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक बड़ा वोट बैंक है जिस पर डॉ संजय निषाद जो निषाद पार्टी के अध्यक्ष हैं ,का स्वाभाविक दावा है और इस चर्चा में भी यह बात उभर कर आई थी। पूरी चर्चा में बहस डॉ संजय निषाद और भाजपा के बीच सिमट गई थी ,शेष विपक्ष पूरी तरह से फोकस के बाहर था। निषाद जाति उत्तर प्रदेश ओबीसी वर्ग मे आते हैं लेकिन यह आश्चर्यजनक था| कि उनके विमर्श मे ओबीसी की राजनीति करने वाले दल एक सिरे से गायब है।
समाज वादी पार्टी जिसने मल्लाह समाज से आने वाली फूल न देवी को ,समाज के अग्रणी समाज की घोर आलोचना के बाद भी संसद में भेजा था और इस कारण भी फूलन देवी के बेहमई कांड पर विमर्श डकैत समस्या से हटकर जाति और नारी शोषण का मुद्दा बन गया था, उस दल की इस समाज में पैठ न के बराबर दिख रही है ।यह अति पिछड़ा समाज जिसके पास भूमि के नाम पर नदी पर परंपरागत अधिकार के अलावा कुछ भी नहीं है , लेकिन वह अपने भविष्य के लिए उन दक्षिणपंथि राजनीति करने वाले दलों की ओर झुक रहे है|
जो उन परंपराओ और जातिगत मूल्यों का पोषण करते हैं जो इनके शोषण का सदियों से कारण रहे है।रिपोर्टर ने जब यह सबाल पूछा कि आप के असली मुद्दे क्या हैं और आप भाजपा के साथ क्यों हैं तो उत्तर और भी चौंकाने वाला था।उनमें से एक पढने वाले छात्र ने कहा कि हमारी मांग है कि हमें आरक्षण दिया जाए और हम जानते हैं कि यह मांग सपा और बसपा कभी पूरी नहीं करेंगे,इसलिए हम भाजपा के साथ हैं और संजय निषाद यदि भाजपा के सहयोगी रहेंगे तब ही पूरा निषाद समाज उनके साथ खडा रहेगा अन्यथा नहीं ।उनका असली मुद्दा आरक्षण है। रिपोर्टर ने पलट कर पूछा कि आप को तो आरक्षण पिछड़े वर्ग मे पहले से ही मिला हुआ है|
तो उन्होंने कहा कि हम अनुसूचित जाति मे आरक्षण चाहते हैं ।यहां ठहर कर आप सोचिये कि आरक्षण का अर्थ संसद से जमीन तक पहुंचते पहुंचते संवैधानिक प्रावधानों से भिन्न क्यों हो गया है और इसे किसने बदला है? संविधान में तो आरक्षण जाति के उत्थान के लिए नहीं था बल्कि यह जाति के कारण शोषित और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए शासकीय नौकरियों में समान अवसर प्रदान करने टूल्स था परन्तु आरक्षण विरोधी दक्षिणपंथि बुद्धिजीवीयों और दक्षिणपंथी राजनैतिक दलों ने इसकी काट यह निकाली कि संविधान के आरक्षण प्रावधान पर ही जाति वाद बढाने का आरोप लगा दिया । चूंकि आरक्षण की छतरी में 85% जनता आ रही थी तो लोकतंत्र मे आरक्षण विरोधी राजनीति सफल नहीं हो सकी ,परन्तु आम जनता में इसको लेकर गलतफहमी पैदा करने में वे सफल हो गये ।
आम आदमी यह समझने लगे कि आरक्षण का आधार जाति है न कि सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर उत्पीडिन और इसका असर हुआ कि जो जातियां अपने को अगडा मानती थी और जिन्होने आरक्षण का सडकों पर जम कर विरोध किया था और उसमे शामिल रहते थे, को जब यह समझ में आया कि उनकी संख्या सरकारी नौकरियों में दूसरे अगडी जाति की तुलना में कम है तो वही माँग करने लगे कि हमारी जाति को पिछड़े वर्ग मे शामिल किया जाए ।उनकी कोई संवेदनशीलता पिछड़े वर्ग की चेतना को लेकर नहीं है लेकिन उनकी नजर उन नौकरियों पर है जिन्हे वे समझते हैं कि वे पिछड़े वर्ग मे शामिल हो कर हथिया सकते हैं और इसको तथाकथित दक्षिणपंथि बुद्धिजीवी और दक्षिणपंथी राजनैतिक दलों हवा देते हैं ताकि पिछड़े वर्ग की राजनैतिक एकता कमजोर हो सके।पिछड़े वर्ग में भी ऐसी जातियों को अनुसूचित जाति मे शामिल होने के लिए भडकाया जा रहा है जो सार्वजनिक शिक्षा के लचर व्यवस्था के कारण पिछड़े वर्ग की मेरिट में भी नहीं आ पा रहे हैं ।
उनसे दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग कहते हैं कि आप को आरक्षण से क्या फायदा हुआ,यह तो पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां ही लाभ ले गए हैं इसलिए आप आरक्षण के अंदर अपनी जाति के लिए आरक्षण की मांग करें या खुद को अनुसूचित जाति मे शामिल करवा ले। इस विमर्श से लगता है कि जैसे संविधान ने जाति संरचना को वैधानिकता दी है और संविधान मे जाति को इकाई मानकर हर जाति के आरक्षण की व्यवस्था की है जिसका अनुपालन नहीं हो रहा है । गैर पिछड़ी जातियों को पिछड़े वर्ग मे और पिछड़े वर्ग के कुछ जातियों को अनुसूचित जाति मे शामिल करने की माँग भी साम्प्रदायिक मुददों से कम नहीं है और आश्चर्यजनक बात यह है कि जो दल और समूह साम्प्रदायिक हैं|
वही आरक्षण को जाति गत आधार पर करने में शामिल है।यदि हर जाति को आरक्षण से लाभ हुआ कि नहीं,यदि यह गणना की जाएगी तो लगभग 6000 हजार जातियों से अधिक का पृथक पृथक आरक्षण करना होगा जो व्यवस्था से अराजकता मे बदल जाएगा और यही कोशिश है दक्षिणपंथि ताकतों की जो समाज को प्राचीन गौरव के नाम पर कबीलाई संस्कृति में बदल देना चाहते हैं । सरकारें जो जनता को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान करने और रोजगार पहुंचाने में असफल रही है वे जनता का ध्यान जाति गत आरक्षण और आर्थिक आरक्षण का शिगूफा छोड़ कर जनता को मूल मुद्दे से भटकना चाहती है ताकि कोई उनसे सबाल न कर सके और वोट बैंक पर भी उनकी पकड़ बनी रहे । निषाद समुदाय की समस्या यह है कि उनके परम्परागत नदियों के अधिकार को सरकार ने ले लिया है और रेवन्यु के लिए उनको ठेकेदारों को दे दिया जाता है जो सामान्यतः दबंग जातियों के होते हैं और ये लोग उनके समाने असहाय हो जाते हैं । मेरा अनुभव मध्य प्रदेश सरकार का है|
जहां मत्स्य पालन विभाग के पास नदियों में परंपरागत रूप से मछली पालन पर निर्भर मछुआरों के लिए कोई योजना नहीं है जो भी योजना है वह तालाबों पर मत्स्य पालन के लिए है जिनको हर वर्ष ठेकेदारों को नीलाम पर उठा दिया जाता है । निषाद समुदाय नदियों के किनारे रहते हैं ।आवश्यकता है कि नदियों पर निषाद समुदाय के परम्परागत अधिकार सुरक्षित किए जाए और इन्हे प्रशिक्षित कर बाजार मे उतरने के लिए इनकी आर्थिक मदद की जाए न कि इन्हे अनुसूचित जाति मे शामिल होने के गंदी राजनीति में घसीटा जाए । यदि ये लोग आर्थिक रूप से सक्षम होंगे और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा इन्हे उपलब्ध होगी तो यह पिछड़े वर्ग के आरक्षण का भी लाभ ले पाएंगे वरना पिछड़े से अनु सूचित जाति मे शामिल होने की लडाई अंत हीन होगी।दक्षिण पंथी विचारधारा ऐसे मुद्दों पर ही राजनीति करेगी इससे विपक्ष और जागरूक बुद्धिजीवीयों को सतर्क रहने की आवश्यकता है ।