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कोरोना के बीच बिहार में चमकी बुखार की दस्तक

देश में अभी कोरोना वायरस का खौफ ही फैला हुआ था, मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. पूरे देश में लॉकडाउन लागू है. इसी बीच बिहार में बच्चों की जानलेवा बीमारी एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) ने भी दस्तक दे दी है. हर वर्ष अमूमन लीची का मौसम आते ही बच्चों की मौत का सिलसिला शुरू हो जाता है.

DW.com हिंदी ने इस को लेकर एक रिपोर्ट पेश की है

इस साल भी अप्रैल से अब तक 16 बच्चे इस बीमारी की चपेट में आ चुके हैं, जिनमें दो की मौत हो चुकी है. खास बात है कि तमाम प्रयासों के बावजूद इस बीमारी के सही कारण का आज तक पता नहीं चल सका है. इस रोग से बच्चों में तेज बुखार के साथ कंपकंपी, झटके और शरीर में ऐंठन होने लगती है. इसके साथ ही देह अचानक सख्त हो जाती है.

आम बोलचाल में इस तरह के झटके को चमकी कहा जाता है, इसलिए स्थानीय लोग इस बीमारी को चमकी बुखार के नाम से पुकारते हैं. यह बीमारी वैसे तो मुजफ्फरपुर और इसके आसपास के जिलों में पाई जाती है किंतु 2019 में बिहार के पूर्वी चंपारण, गया, वैशाली, समस्तीपुर और भागलपुर समेत 12 जिलों में इस बीमारी के मामले सामने आए थे. प्रदेश भर में करीब 200 बच्चों की जान चली गई थी.

एईएस का पहला मामला मुजफ्फरपुर में 1995 में सामने आया था. इतना साफ हो चुका है कि लीची से एईएस का संबंध तो है, किंतु यह इसका प्रमुख कारण नहीं है. कुपोषण व जागरुकता की कमी एईएस के प्रमुख फैक्टरों में से एक है. अब तक मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती 16 बच्चों में एईएस की पुष्टि हुई है जिनमें दो की मौत हो गई.

ग्लूकोज की कमी से जाती जान
क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर के वायरोलॉजी विभाग के पूर्व प्रोफेसर टी.जैकब जॉन तथा उनके सहयोगी डॉ अरुण शाह के अनुसार एईएस बीमारियों का समूह है. जिसके कई फैक्टर हैं. उनके शोध के मुताबिक लीची में मैथिलीन साइक्लोप्रोपाइल ग्लाइसिन (एमसीपीजी) पाया जाता है. इसे हाइपोग्लाइनिस ए भी कहा जाता है. बिना पकी लीची के फल में इसकी सांद्रता उच्च स्तर की होती है. ऐसे फल का सेवन बच्चों में ग्लूकोज की मात्रा को कम कर देता है. इस वजह से बच्चों का जीवन संकट में आ जाता है.

इस बीमारी के शिकार गरीब तबके के अधिकांश एक से पांच साल के बच्चे हुए हैं जो कुपोषित होते हैं. बीमारी को ट्रिगर करने के लिए लीची को जिम्मेदार बताया जाता है. वे बच्चे जो रात में बिना खाए सो जाते हैं और सुबह में लीची खा लेते हैं और यह क्रम लगातार कई दिनों तक चलता है, वे एईएस के शिकार होते हैं.

रिसर्च से पता चला है कि एईएस से प्रभावित बच्चों में ब्लड ग्लूकोज का स्तर 70 मिलीग्राम या इससे कम था. ग्लूकोज लेवल का कम होना उनके कुपोषित होने या फिर रात में भूखे पेट सो जाने के कारण होता है. कुपोषित बच्चों में ग्लूकोज रिजर्व ऐसे भी कम ही होता है. एमसीपीजी इस लेवल को और गिरा देता है. हाइपोग्लैसिमिया की वजह से मस्तिष्क पर बहुत दुष्प्रभाव पड़ता है और सही समय पर अगर उपचार उपलब्ध ना हुआ तो बच्चे की मौत हो जाती है.

Photo – India today website

वियतनाम व बांग्लादेश में किए अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि लीची तैयार होने के मौसम यानि (मई से जून) के बीच इस बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है. एक भारतीय-अमेरिकी टीम ने भी अपने शोध में इस बात की पुष्टि की है. द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ जनरल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में भी लीची खाने के कारण हाइपोग्लैसिमिया के शिकार होने की बात कही गई है. उपचार के दौरान यह बात भी सामने आई है कि एईएस के लक्षण दिखने के चार घंटे के अंदर जिन बच्चों को डेक्सट्रोज की दस फीसद मात्रा दी गई, उनकी जान बच गई. साफ है लीची में ब्लड सुगर को लो करने वाला वह तत्व मौजूद है जो एईएस का तात्कालिक कारण बनता है. यह भी कहा गया है कि जिन बच्चों ने लीची खाने के बाद पानी नहीं पी या काफी देर बाद पी, उनमें सोडियम की मात्रा कम हो गई, जिस वजह से उन्हें मस्तिष्क संबंधी दिक्कतें शुरू हो गईं.

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च तथा नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ न्यूट्रिशन के विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि एईएस के शिकार कुछ बच्चे ऐसे थे जिन्होंने लीची का सेवन नहीं किया था और कुछ तो इतने छोटे थे जो फल खा ही नहीं सकते थे. बिहार सरकार का स्वास्थ्य विभाग भी इस बीमारी के लिए लीची को जिम्मेदार बताए जाने के दावे को नकार चुका है.

गरीबी व जागरुकता की कमी मौत की बड़ी वजह
एईएस के करीब 80 प्रतिशत मामले मुजफ्फरपुर या उसके आसपास के इलाके से आते हैं. इस बीमारी से मरने वाले 95 फीसद बच्चे गरीब व वंचित वर्ग से हैं, जो कुपोषण के शिकार हैं. मुजफ्फरपुर के मोतीपुर, मीनापुर, कांटी व मुशहरी जैसे ब्लॉक में तो करीब 40 फीसदी से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे आती है. कुपोषित बच्चों में आयरन की भी कमी होती है. डॉ अरुण शाह के अनुसार, ‘‘आज तक शहरी इलाके में रहने वाले बच्चों में इस बीमारी को नहीं पाया गया जबकि शहरी इलाके के बच्चे भी लीची खाते हैं. इससे सिर्फ गरीब व कुपोषित बच्चे ही पीडि़त होते हैं.”

मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल के शिशु रोग के विभागाध्यक्ष डॉ गोपाल शंकर सहनी कहते हैं, ‘‘इलाज के दौरान पता चलता है कि जो बच्चे रात में खाली पेट सो गए थे, वे ज्यादा प्रभावित हुए. इन बच्चों में ब्लड सुगर की मात्रा कम थी.

जागरुकता के लिए गांवों की चौपाल पर चर्चा
एईएस पीड़ित बच्चों के इलाज के लिए साल भर पहले मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल में सौ बेड का शिशु गहन चिकित्सा यूनिट बनाया गया. एईएस की रोकथाम के लिए मुजफ्फरपुर जिले की 16 प्रखंडों की 196 पंचायतों को 196 अधिकारियों ने गोद लिया है. सभी पंचायतों में अधिकारी घर-घर पहुंचेंगे तथा लोगों को जागरूक करेंगे. गांवों में दीवार लेखन, हैंडबिल और पंपलेट बांट कर और नुक्कड़ नाटकों के जरिए लोगों को एईएस के लक्षण व उसके बाद क्या किया जाए, इसकी जानकारी देंगे. इस काम में गैरसरकारी संगठनों और स्थानीय लोगों की भी मदद ली जा रही है.

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