Uttar Pradesh Chunav 2022 : क्या उत्तरप्रदेश के किसान छुट्टा गोवंश को चुनावी मुद्दा बना पांएगे
किसानों के मुद्दे पर बात से पहले कोविड महामारी के दिनों को याद करें। सारी अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई। शहरों से पलायन बढ़ा। लोग बेरोजगार हुए। किसानों ने ही सबको संभाला। किसानों ने साबित कर दिया कि वे अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। यूपी की करीब 68 फीसदी आबादी की निर्भरता आज भी खेती-किसानी पर है। इसमें भी 93 प्रतिशत छोटे (लघु) व मझोले (सीमांत) किसान हैं। हर चुनाव में सियासत के केंद्र में ये किसान होते हैं। वादे होते हैं। वादों पर सियासी फसलें लहलहाती हैं। पर, यह भी उतना ही सच है कि अन्य सेक्टर के मुकाबले किसानों के हिस्से उतना फायदा नहीं आता।
उत्तर प्रदेश में चुनाव का उद्घोष हो चूका है | 2017 में योगी सरकार के सत्ता संभालते ही अवैध बूचड़खानों के बंद करने के एलान के साथ अब बात सियासत की। भाजपा का 14 वर्ष का सत्ता का वनवास 2017 में खत्म हुआ। विधानसभा में 312 सीटें अगर भाजपा ला सकी तो इसमें किसानों की कर्जमाफी के वादे का बड़ा योगदान रहा। लोकसभा चुनाव में भी 49.6 फीसदी वोट शेयर भाजपाने हासिल किए तो इसका भी बहुत हद तक श्रेय किसानों को जाता है। यह सब तब था जबकि किसानों का पूरा कर्ज माफ किए जाने के बजाय एक-एक लाख रुपये ही माफ हुए। 6000 रुपये सालाना सम्मान निधि भी किसानों को रास आई। सिंचाई परियोजनाओं सहित कई अधूरी परियोजनाएं पूरी हुई हैं। पर, तीन कृषि कानूनों को लेकर किसान आंदोलन ने जिस तरह से सियासत को गरमाया, उसका असर चुनावी समीकरणों पर तो पड़ेगा ही।ही गोवंश के वध पर सख्त कानून से प्रदेश में किसान इस वक्त परेशान है । आवारा पशु, जिसमें गाय ,बैल एवं बछड़े शामिल हैं खेतों मे खड़ी फसल सफाचट किए जा रहे है । किसान रात दिन जागकर अपने खेतों की रखवाली लाठी डंडे से कर रहा है और सरकार को कोस रहा है कि कानून तो बना दिया कि गौवंश की रक्षा की जाएगी, लेकिन राजनैतिक फायदे के लिए बनाए गये कानून आज किसानों के लिये सरदर्द साबित हो रहे हैं।
भले गाय को लोग माता कहते न थकते हों, लेकिन उत्तरप्रदेश में सबसे ज्यादा बेकदरी गाय की है, जबकि भैंस, बकरी, गधा, खच्चर और सुअर को लेकर इतने बुरे हाल नहीं हैं। ये आज भी इनको पालने वालों की कैश प्रापर्टी कहलाते हैं। रातभर जागकर अन्ना पशुओं से फसल बचाने के लिए खेतों में रखवाली कर रहे किसान इन आवारा पशुओं से आजिज आ चुके हैं। फर्रुखाबाद के किसान उत्तम सिंह के अनुसार, अन्ना पशुओं पर सरकार प्रभावी अंकुश नहीं लगा पाई है। इस बार के चुनावों में किसान इस मुद्दे को ध्यान में रखकर वोट डालेगा। बुधौरा के किसान हरीसिंह के अनुसार, प्राकृतिक आपदाओं से किसान को जूझना पड़ता है। अन्ना पशु मानव जनित आपदा है। जिस पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है। सरकार के चलताऊ रवैए से इस समस्या से निजात नहीं मिल सकता है। उनके अनुसार उत्तरप्रदेश में अन्ना पशु बड़ा चुनावी मुद्दा बनेगा, क्योंकि किसान अन्ना पशुओं से बुरी तरह हलकान है। कनसी के किसान देवपाल के अनुसार, अब किसानों को वादों का लॉलीपॉप देकर नहीं बहलाया जा सकता है। उत्तरप्रदेश का किसान मेहनतकश है। यहां की मिट्टी भी उपजाऊ है। यदि अन्ना पशुओं पर लगाम लग जाए तो किसान को बहुत सारी समस्याओं से निजात मिल सकती है।
छुट्टा पशुओं का डर: फसल बचाने के लिए बाड़बंदी पर छमाही खर्च हो रहे 10 हजार तक
बागपत में कृषक उत्पादक समूह का संचालन कर रहे किसान महेंद्र जाट कहते हैं, लालफीताशाही वाली नीति से सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद छुट्टा जानवरों से फसलों के नुकसान की समस्या का समाधान नहीं हो पाया है। हर छमाही 8-10 हजार रुपये फसलों की बाड़बंदी का खर्चा बढ़ गया है। इस बार के चुनावों में अन्ना पशुओं को लेकर मुद्दा फिर गर्म रहने की संभावना है।
इतना ही नहीं, पिछले दिनों बरेली जिले के आंवला इलाके में छुट्टा गायों की वजह से बड़ा सांप्रदायिक संघर्ष होते-होते बचा. यहां कुरैशी समुदाय के कुछ लोगों ने कथित तौर पर मंदिर के तीन पुजारियों की हत्या कर दी. पुलिस ने कुछ लोगों को इस मामले में गिरफ्तार भी किया. बताया गया कि ये पुजारी इन लोगों को गाय काटने से रोकते थे.
लेकिन गांव के ही एक व्यक्ति रमेश कुमार का कहना था कि गांव के कुरैशियों को कई लोग खुद अपनी उन गायों को सौंप देते थे जो दूध देना बंद कर देती थीं. रमेश कुमार के मुताबिक, “अब जबकि अवैध बूचड़खानों को बंद कर दिया गया है तो सड़क पर और खेतों में तो जानवर दिखेंगे ही. लोग दुधारू गाय या भैंस को तो रखते हैं लेकिन दूध न देने पर वो किसी को भी अपनी गाय सौंप देते हैं. अंत में ये मवेशी उन्हीं के पास आते हैं जो इन्हें काटते हैं. और ये बात उसे भी पता होती है जो गाय किसी दूसरे को देकर आता है.”