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बी. पी. मंडल : 60 करोड़ ओबीसी की तकदीर बदलने वाले नेता की आज पुण्यतिथि है

अप्रैल महीने का सामाजिक न्याय के संदर्भ में ऐतिहासिक महत्व है. 11 अप्रैल का दिन सामाजिक क्रांति के जनक महात्मा ज्योतिबा फुले की जयंती होने का कारण महत्वपूर्ण है, 14 अप्रैल को बाबासाहेब डा. भीमराव आंबेडकर का जन्मदिवस है और इस बीच 13 अप्रैल को सामाजिक न्याय के प्रणेता बी.पी. मंडल की पुण्यतिथि है.

उनकी अध्यक्षता में लिखी गई दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे मंडल कमीशन के लोकप्रिय नाम से जाना जाता है, की रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 परसेंट आरक्षण मिला. इसी आयोग की एक और सिफारिश के आधार पर केंद्रीय शिक्षा संस्थानों में दाखिलों में भी पिछड़े वर्गों को 27 परसेंट आरक्षण दिया गया. इस आयोग की 40 में से ज्यादातर सिफारिशों पर अब तक अमल नहीं हुआ है. अगर भविष्य में कोई सरकार इस दिशा में काम करती है, तो इससे पिछड़ों का भला होगा.

मंडल कमीशन की रिपोर्ट भारत में सामाजिक लोकतंत्र लाने और 52 फीसदी ओबीसी आबादी को राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदार बनाने की आजादी के बाद की सबसे बड़ी पहल साबित हुई, जिससे इन वर्गों के लाखों लोगों को नौकरियां मिलीं और शिक्षा संस्थानों में दाखिला मिला. इससे पिछड़े वर्गों की भारतीय लोकतंत्र में आस्था मजबूत हुई और उनके अंदर ये भरोसा पैदा हुआ कि देश के संसाधनों और अवसरों में उनका भी हिस्सा है.

मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आने के साथ ही खासकर उत्तर भारत में पिछड़े वर्गों की महत्वाकांक्षा का भी विस्फोट हुआ. राजनीति में उनकी दावेदारी मजबूत हुई और अपनी तकदीर खुद लिखने का जज्बा उनमें पैदा हुआ. 1980 के बाद उत्तर भारत में लालू-मुलायम-नीतीश और पिछड़ी जातियों के तमाम नेताओं की आगे आना इसी पृष्ठभूमि में हुआ है. इसे भारतीय राजनीति की मूक क्रांति या साइलेंट रिवोल्यूशन भी कहा गया क्योंकि इसके जरिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विशाल आबादी की हिस्सेदारी बढ़ी. इस मायने में मंडल कमीशन की रिपोर्ट का युगांतकारी महत्व है.

इस रिपोर्ट के प्रधान रचनाकार बी.पी. मंडल ने इस मामले में भारत की तकदीर लिखने वालों में अपना नाम दर्ज करा लिया.

परिचय
बी. पी. मंडल का जब जन्म हुआ, तब उनके पिता रास बिहारी लाल मंडल बीमार थे और बनारस में आखिरी सांसें गिन रहे थे। जन्म के अगले ही दिन बी. पी. मंडल के सिर से पिता का साया उठ गया। मृत्यु के समय रास बिहारी लाल मंडल की उम्र सिर्फ़ 54 साल थी। बी. पी. मंडल का ताल्लुक बिहार के मधेपुरा ज़िले के मुरहो गांव के एक जमींदार परिवार से था। मधेपुरा से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर बसा है मुरहो। इसी गांव के किराई मुसहर साल 1952 में मुसहर जाति से चुने जाने वाले पहले सांसद थे।

मुसहर अभी भी बिहार की सबसे वंचित जातियों में से एक है। किराई मुसहर से जुड़ी मुरहो की पहचान अब लगभग भुला दी गई है। अब ये गांव बी. पी. मंडल के गांव के रूप में ही जाना जाता है। राष्ट्रीय राजमार्ग-107 से नीचे उतरकर मुरहो की ओर बढ़ते ही बी. पी. मंडल के नाम का बड़ा सा कंक्रीट का तोरण द्वार है। गांव में उनकी समाधि भी है। बी. पी. मंडल की शुरुआती पढ़ाई मुरहो और मधेपुरा में हुई। हाई स्कूल की पढ़ाई दरभंगा स्थित राज हाई स्कूल से की। स्कूल से ही उन्होंने पिछड़ों के हक़ में आवाज़ उठाना शुरू कर दिया था।[1]

राजनीतिक शुरुआत
राज हाईस्कूल में बी. पी. मंडल हॉस्टल में रहते थे। वहां पहले अगड़ी कही जाने वाली जातियों के लड़कों को खाना मिलता उसके बाद ही अन्य छात्रों को खाना दिया जाता था। उस स्कूल में फॉरवर्ड बेंच पर बैठते थे और बैकवर्ड नीचे। उन्होंने इन दोनों बातों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और पिछड़ों को भी बराबरी का हक मिला। स्कूल के बाद की पढ़ाई उन्होंने बिहार की राजधानी के पटना कॉलेज से की। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ दिन तक भागलपुर में मजिस्ट्रेट के रूप में भी सेवाएं दीं और साल 1952 में भारत में हुए पहले आम चुनाव में वे मधेपुरा से कांग्रेस के टिकट पर बिहार विधानसभा के सदस्य बने। बी. पी. मंडल को राजनीति विरासत में भी मिली थी। उनके पिता कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।

बी.पी. मंडल का जन्म बिहार के मधेपुरा जिलान्तर्गत मुरहो एस्टेट के प्रसिद्ध यादव जमींदार रासबिहारी मंडल के पुत्र के रूप में सीतावती देवी के कोख से 25 अगस्त 1918 ई. को बनारस में हुआ। स्वतंत्रता सेनानी रासबिहारी मंडल उन दिनों अपनी बीमारी के इलाज के लिए परिवार सहित बनारस प्रवास पर थे। बी.पी. मंडल के जन्म के अगले ही दिन उनके बीमार पिताजी की मृत्यु हो गई थी। रासबिहारी मंडल कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। दिसम्बर 1885 ई. में बम्बई में हुए कांग्रेस की स्थापना समारोह में वे दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह के साथ शामिल हुए थे। बी.पी. मंडल के पिताजी आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी के पदार्पण के बहुत पहले से बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमिटी और अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के निर्वाचित सदस्य रह चुके थे। बी.पी. मंडल को देशप्रेम का जज्बा, स्वाभिमानी चेतना और समाजसेवा का संस्कार अपने पिताजी से विरासत में मिला था। बालक बिंदेश्वरी की परवरिश मां सीतावती और बड़े भाई कमलेश्वरी मंडल के संरक्षण में चलता रहा।

स्कूल में उठाया जातिगत भेदभाव का सवाल
बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की औपचारिक शिक्षा उनके गांव मुरहो स्थित विद्यालय में प्रारंभ हुई जो अब कमलेश्वरी मध्य विद्यालय के नाम से जाना जाता है। कुछ वर्षों के लिए वे सीरिज़ इंस्टीट्यूट, मधेपुरा में नामांकित हुए। सीरिज़ इंस्टीट्यूट अब शिवनंदन प्रसाद मंडल उच्च विद्यालय के नाम से प्रसिद्ध है। माध्यमिक स्तरीय शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें राज हाई स्कूल, दरभंगा भेजा गया। एक जमींदार परिवार के नजाकत भरे परिवेश में पले-बढ़े बालक बिंदेश्वरी को जब इस हाईस्कूल में जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ा तो उनके स्वाभिमान की तपिश से विद्यालय परिसर में कोलाहल मच गया था। दरअसल हुआ यह था कि इस हाईस्कूल के वर्ग-व्यवस्थापन में वर्णवादी दृष्टिकोण हावी था। विद्यालय में नामांकित छात्रों में सवर्ण समाज के बच्चे ज्यादा थे। सवर्ण बच्चों के बैठने के बाद ही पीछे की शेष बची बेंचों पर वंचित समाज के बच्चों को बैठने की जगह मिलती थी। कभी-कभी तो वंचित समाज के बच्चों को फर्श पर बैठने के लिए मजबूर किया जाता था। छात्रावास में भी वंचित समाज के बच्चे भेदभाव के शिकार होते थे। वहां सवर्ण समाज के बच्चों को भोजन खिलाने के बाद ही तथाकथित शूद्र जाति के छात्रों को भोजन देने का रिवाज था। सब कुछ सहजता से चल रहा था, किसी को इस व्यवस्था में कोई बुराई नजर नहीं आ रही थी। परंतु एक बालक ऐसा भी था जिसे यह सब नागवार गुजर रहा था। बालक बिंदेश्वरी ने जात-पात पर आधारित विभेदकारी व्यवस्था से व्यथित होकर आंदोलन छेड़ने का निर्णय किया। हालांकि वंचित समाज के बच्चे कम संख्या में थे फिर भी उनकी बात सुनी गई तथा विद्यालय में भेदभाव वाली व्यवस्था का अंत हुआ। समाजिक न्याय के सफर में यह घटना उनके लिए मील का पत्थर साबित हुई तथा उसने उनके चिंतन की दिशा बदल दी।


विधानसभा में जातिसूचक शब्दों पर लगवाया प्रतिबंध
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ तथा मार्च 1950 में सुकुमार सेन भारत के प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त हुए। इस नियुक्ति के बाद लोकसभा और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए चुनाव की सुगबुगाहट तेज होने लगी थी। सन् 1952 के शुरुआती महीनों में लोकसभा और विधानसभा दोनों के चुनाव संपन्न हुए। कांग्रेस पार्टी के सदस्य के रूप में बी.पी. मंडल ने मधेपुरा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का निर्णय किया और जीतकर बिहार की प्रथम विधानसभा के सदस्य बने। श्रीकृष्ण सिंह के मंत्रिमंडल में उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाए जाने की उम्मीद थी परंतु जूनियर मंत्री के ऑफर को उन्होंने दृढ़तापूर्वक ठुकरा दिया। उन्होंने सदन में सत्ता पक्ष के विधायक होते हुए भी जनपक्षीय मुद्दे उठाने से कभी परहेज नहीं किया। एक बार सदन में गोवार (ग्वाला) शब्द का उपयोग बार-बार किया जा रहा था जिस पर उन्होंने कड़ी आपत्ति दर्ज की थी। उन दिनों सदन के द्विज सदस्य धड़ल्ले से जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते थे। बी.पी. मंडल ने जातिसूचक शब्दों को असंसदीय करार देते हुए इन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की तो जवाब आया कि जो शब्द हमारे शब्दकोश में हैं वो असंसदीय कैसे हो सकता है! बी.पी. मंडल ने प्रत्युत्तर में कहा, “गालियां भी तो हमारे शब्दकोश में हैं, तो क्या हम सदन में गालियों का भी प्रयोग करेंगे!” सभी निरूत्तर हो गये तथा सदन के भीतर जातिसूचक शब्दों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

कांग्रेस से मोहभंग
सन् 1957 में हुए विधानसभा चुनाव में हार जाने के कारण उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाये जाने का तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के आश्वासन का लाभ नहीं मिल पाया। सन् 1962 के विधानसभा चुनाव में वे दोबारा चुनकर आए तब तक श्रीकृष्ण सिंह की मृत्यु हो चुकी थी तथा कांग्रेस के अंदरूनी सत्ता संघर्ष में शह-मात का खेल चल रहा था। बी.पी. मंडल जनता की समस्याओं को प्रखरता से सदन के पटल पर रख रहे थे। उन्हीं दिनों पामा गांव में दलितों पर सवर्णों के अत्याचार और पुलिसिया दमन के विरोध में सरकार से अलग स्टैंड लेने के कारण कांग्रेस नेतृत्व से उनके मतभेद हो गए. फलस्वरूप सन् 1965 में वे कांग्रेस से बाहर आ गए तथा संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) की सदस्यता ले ली। संसोपा उन दिनों डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में पिछड़े वर्ग को संगठित कर पूरे देश में गैर-कांग्रेसवाद का अभियान चला रही थी। संसोपा का नारा था, “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ”। बी.पी. मंडल के आने के बाद संसोपा को बिहार में नई उम्मीदों का बड़ा आधार मिल गया था।

साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, की एक सिफ़ारिश को लागू किया था.

ये सिफारिश अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी. इस फ़ैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया. इस आयोग के अध्यक्ष थे बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल यानी बीपी मंडल.

बीपी मंडल विधायक, सांसद, मंत्री और बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे. लेकिन दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष के रूप की गई सिफ़ारिशों के कारण ही उन्हें इतिहास में नायक, खासकर पिछड़ा वर्ग के एक बड़े आइकन के रूप में याद किया जाता है.
दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनावों में बनी जनता पार्टी की मोरारजी भाई देसाई की सरकार ने किया था.

दरअसल, जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में ऐसे आयोग के गठन की घोषणा की थी.

रियाणा के पूर्व राज्यपाल धनिक लाल मंडल मोरारजी सरकार में गृह राज्य मंत्री थे. उन्होंने ही तब राज्य सभा में इस आयोग के गठन की घोषणा की थी. अभी चंडीगढ़ में रह रहे करीब 84 साल के धनिक लाल मंडल से मैंने फ़ोन पर पूछा कि आप की सरकार ने तब इस आयोग के अध्यक्ष बतौर बीपी मंडल का ही चुनाव क्यों किया?

इसके जवाब में वो कहते हैं, ”तय ये हुआ था कि आयोग का जो अध्यक्ष हो उसकी बड़ी हैसियत होनी चाहिए. वो (बीपी मंडल) बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके थे. साथ ही वे पिछड़ा वर्ग के हितों के बड़े हिमायती थे. वे इसके बड़े पैरोकार थे कि पिछड़ा वर्ग को आरक्षण मिलना चाहिए.”

जदयू प्रवक्ता एडवोकेट निखिल मंडल बीपी मंडल के पोते हैं. वे अभी बीपी मंडल जन्मशती सामरोह से जुड़े आयोजन के सिललिले में मुरहो में ही हैं
वे बताते हैं, ”राज हाई स्कूल में बीपी मंडल हॉस्टल में रहते थे. वहां पहले अगड़ी कही जाने वाली जातियों के लड़कों को खाना मिलता उसके बाद ही अन्य छात्रों को खाना दिया जाता था. उस स्कूल में फॉरवर्ड बेंच पर बैठते थे और बैकवर्ड नीचे. उन्होंने इन दोनों बातों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और पिछड़ों को भी बराबरी का हक मिला.”

स्कूल के बाद की पढ़ाई उन्होंने बिहार की राजधानी के पटना कॉलेज से की. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ दिन तक भागलपुर में मजिस्ट्रेट के रूप में भी सेवाएं दीं और साल 1952 में भारत में हुए पहले आम चुनाव में वे मधेपुरा से कांग्रेस के टिकट पर बिहार विधानसभा के सदस्य बने.

बीपी मंडल को राजनीति विरासत में भी मिली थी. निखिल बताते हैं कि बीपी मंडल के पिता कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे.

पचास दिन रहे मुख्यमंत्री
बीपी मंडल साल 1967 में लोकसभा के लिए चुने गए. हालांकि तब तक वे कांग्रेस छोड़कर राम मनोहर लोहिया की अगुवाई वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता बन चुके थे. 1967 के चुनाव के बाद बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेस सरकार बनी जिसमें बीपी मंडल स्वास्थ्य मंत्री बने. ये एक गठबंधन सरकार थी और इसके अपने अंतर्विरोध थे. ये सरकार करीब 11 महीने ही टिक पाई.

इस बीच बीपी मंडल के भी अपने दल से गंभीर मतभेद हो गए. उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से अलग होकर शोषित दल बनाया और फिर अपने पुराने दल कांग्रेस के ही समर्थन से एक फरवरी, 1968 को बिहार के मुख्यमंत्री बने. मगर इस पद पर वे महज पचास दिन तक ही रहे.

शूद्र मुख्यमंत्री होगा तो पानी में आग लगेगा ही

जब बी.पी. मंडल बिहार के सीएम बने तब बरौनी रिफाइनरी में रिसाव के कारण गंगा में आग लग गई थी। विधानसभा में विनोदानंद झा ने कटाक्ष करते हुए कहा था कि “शूद्र मुख्यमंत्री होगा तो पानी में आग लगेगा ही।” इसके जवाब में मंडल ने कहा था कि “गंगा में आग तो तेल के रिसाव से लगी है परंतु एक पिछड़े वर्ग के बेटे के मुख्यमंत्री बनने से आपके दिल में जो आग लगी है, उसे हर कोई महसूस कर सकता है”

उनके मुख्यमंत्री बनने के पहले केवल पांच दिन के लिए बिहार के कार्यवाहक मुख्यमंत्री रहे बीपी मंडल के मित्र सतीश प्रसाद सिंह उस दौर के घटनाक्रम को याद करते हुए कहते हैं, ”मुख्यमंत्री बनने के पहले उनका बिहार विधान परिषद का सदस्य बनना ज़रूरी था. एक एमएलसी परमानंद सहाय ने इस्तीफ़ा दिया. इसके बाद कैबिनेट की मीटिंग बुलाकर मैंने मंडल जी को एमएलसी बनाने की सिफ़ारिश की और फिर अगले दिन विधान परिषद का सत्र बुलाकर उनको शपथ भी दिला दी. इस तरह उनके मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ़ कर दिया.”

इंदिरा ने लागू नहीं की रिपोर्ट
मंडल आयोग का गठन मोरारजी देसाई की सरकार के समय 1 जनवरी, 1979 को हुआ और इस आयोग ने इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान 31 दिसंबर 1980 को रिपोर्ट सौंपी. उनके मित्र रहे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह बताते हैं, ”1980 के आम चुनाव में मैं कांग्रेस पार्टी के टिकट पर सांसद बना था. सरकार बदलने के बाद बीपी मंडल के कहने पर मैंने आयोग का कार्यकाल बढ़ाने की सिफारिश तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से की थी. जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया.”

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र कहते हैं कि उन्हें छोटे भाई के रूप में बीपी मंडल का स्नेह मिला. जगन्नाथ मिश्र बताते हैं कि बीपी मंडल ने अपनी रिपोर्ट में इंदिरा गांधी की तारीफ भी की है.

उनकी रिपोर्ट पर इंदिरा गांधी की राय जगन्नाथ मिश्र इन शब्दों में सामने रखते हैं, ”इंदिरा जी महसूस करती थीं कि ये सोशल हार्मोनी के लायक नहीं है. इसे तत्काल लागू करना ठीक नहीं है. बाद में अगर वीपी सिंह और देवी लाल का झगड़ा नहीं होता तो रिपोर्ट लागू ही नहीं होती.”

आयोग अध्यक्ष बीपी मंडल के काम का मूल्यांकन करते हुए धनिक लाल मंडल कहते हैं, ”काम तो ठीक ही कर रहे थे मगर उन्होंने रिपोर्ट पूरा करने में बहुत समय ले लिया. हम गृहमंत्री की हैसियत से उनको कहते भी रहे कि ज़रा जल्दी कर दीजिए जिससे कि हमारी सरकार इसकी अनुशंसाओं पर विचार कर सके. मगर उन्होंने समय कुछ अधिक लगा दिया.”

धनिक लाल मंडल का कहना है कि उनकी सरकार के कार्यकाल में अगर मंडल आयोग की रिपोर्ट मिल जाती तो उनकी सरकार ही पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू कर देती.
‘ईमानदारी थे और कंजूस भी’

बीपी मंडल का जीवन सादगी और सहजता से भरा था. जैसा कि निखिल मंडल बताते हैं, ”मेरी बहन पटना के माउंट कॉर्मेल स्कूल में पढ़ती थी. दादाजी को जब मौका मिलता वे खुद कार चलाकर उसे स्कूल छोड़ने या लाने चले जाते थे. बिना लाव-लश्कर के मधेपुरा आया करते थे. वे जमींदार परिवार से थे लेकिन कोई गरीब व्यक्ति भी आता तो बराबरी और सम्मन के साथ बिठाकर बात करते थे.”

वहीं सतीश प्रसाद सिंह बताते हैं, ”गुण तो बहुत था मगर कुछ अवगुण भी थे. जो बोलना था वे बोल देते थे, उसके असर के बारे में सोचते नहीं थे. जैसे कि मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस के एक नेता के बारे में कह दिया कि ‘बार्किंग डॉग्स सेल्डम बाइट’. और इस बयान के कुछ दिन बाद उनकी सरकार गिरा दी गई. गुण ये था कि ईमानदार बहुत थे. साथ ही कंजूस भी बहुत थे. एक पैसा खर्च करना नहीं चाहते थे. हम दोनों के पास फिएट गाड़ी थी मगर वे कहते थे कि सतीश बाबू आपकी गाड़ी नई है, उसी से चलेंगे. इस पर मैं कहता कि ऐसी बात नहीं है, आप पैसे बचाना चाहते हैं.”

कोसी इलाके में जगन्नाथ मिश्र और बीपी मंडल के परिवार के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी रही. इसकी एक वजह मधेपुरा को ज़िला बनाने के लेकर हुआ विवाद भी था. बताया जाता है कि राजनीतिक कारणों से मधेपुरा से पहले सहरसा को ज़िला बना दिया गया.

लेकिन अस्सी के दशक में जब जगन्नाथ मिश्र ने मुख्यमंत्री रहते मधेपुरा को ज़िला बनाया तो बीपी मंडल ने मंच से जगन्नाथ मिश्र की तारीफ़ की.

जगन्नाथ मिश्र याद करते हैं, ”मधेपुरा के ज़िला बनने संबंधी आयोजन में जो जमात इकट्ठी हुई वो ऐतिहासिक थी. मंच से ही मैंने ज़िले के डीएम-एसपी के नाम की घोषणा की. मंच पर बीपी मंडल भी मौजूद थे. उन्होंने कहा कि ये (जगन्नाथ) मेरा बच्चा है. हम इसे आशीर्वाद देते हैं. ये मधेपुरा के लिए बहुत कुछ करेगा.”

13 अप्रैल, 1982 को पटना में बीपी मंडल की मौत हुई. उस वक्त जगन्नाथ मिश्र ही बिहार के मुख्यमंत्री थे.

मंडल के परिजनों ने ख्वाहिश जताई कि वे अंतिम संस्कार मधेपुरा स्थित पैतृक गांव मुरहो में करना चाहते हैं. जगन्नाथ मिश्र बताते हैं कि तब मैंने न सिर्फ़ उनका पार्थिव शरीर ले जाने के लिए सरकारी प्लेन का इंतजाम किया बल्कि उनके शव के साथ उनके गांव तक भी गया.

कई सिफ़ारिशें लागू होना बाक़ी

मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पहले 1990 में पिछड़ा वर्ग को नौकरियों में आरक्षण मिला और बाद में मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल के दौरान साल 2006 में उच्च शिक्षा में ये व्यवस्था लागू की गई.
दूसरी ओर मंडल आयोग की कई अहम सिफ़ारिशों को अभी भी ज़मीन पर उतारा जाना बाकी है. ये जानना दिलचस्प है कि एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते हुए भी मंडल आयोग की सिफ़ारिशों में भूमि सुधार संबंधी सिफ़ारिश भी है.

राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ”देश की विशाल आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले पिछड़ा वर्ग को आज़ादी के क़रीब पांच दशक बाद मंडल आयोग की एक सिफ़ारिश लागू होने से अधिकार मिला. लेकिन सामाजिक न्याय को पूरी तरह से ज़मीन पर उतारने के लिए उनकी दूसरी कई सिफ़ारिशों को भी लागू किया जाना ज़रूरी है. जिनमें शिक्षा-सुधार, भूमि-सुधार, पेशागत जातियों को सरकारी स्तर पर नई तकनीक और व्यापार के लिए वित्तीय मदद मुहैया कराने से जुड़ी सिफ़ारिशें शामिल हैं. इन्हें लागू किया जाए.

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